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लेखिका - पूजा गुप्ता
मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
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उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार के विस्तार ने आवश्यकताओं के स्थान पर लालच और दिखावे के उपभोग को महत्त्वपूर्ण बना दिया है। इसलिए बाजारवादी शक्तियां बच्चों के सामने उत्पन्न संकट की स्थितियों को भी एक व्यावसायिक अवसर के रूप में ही देखती हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं।
विश्वास में लेकर,या प्रेम भरकर किसी को जहर भी दो तो खा लेगा,रूखेपन से किसी को अमृत भी दो तो ना पिएगा। लेकिन मां डरा,डपटकर बच्चे को उसके अच्छे स्वास्थ्य की चीजें खिलाती है। वही बच्चे राष्ट्र के मजबूत नागरिक भी बनते हैं। लेकिन बाजारवाद मे सिमट कर माँ भी कभी कभी गलतियां कर जाती है अनजाने में ऐसी वस्तुओं को खरीद लेती है जो बच्चों के स्वास्थ्य के अनुरूप नहीं है।
आज के उपभोक्तावादी समाज में हर वस्तु बिकाऊ बना दी गई है। कहा जाता है कि बाजार का केवल एक नियम होता है कि बाजार का अपना कोई नियम नहीं होता। इसलिए हर चीज, यहां तक कि भावना और रिश्ते भी उपभोग की वस्तु बन चुके हैं। जिसे मन चाहा, दाम लगा कर बेचा और खरीदा जा सकता है। दुनिया तेजी से बदल रही है, इसलिए परिवार, शिक्षा, राजनीति और अर्थव्यवस्था भी समय के अनुरूप तेजी से करवटें ले रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि तेजी से बदलते इस दौर ने मनुष्य की उम्र के हर पड़ाव को प्रभावित किया है। अगर बाल्यावस्था की बात करें, तो बचपन खो गया है या कहें कि आज के दौर में बचपन जैसा कुछ रह ही नहीं गया। बच्चे सीधे किशोर या युवावस्था में कदम रखने लगे हैं। अब बच्चे खिलौनों से नहीं, मोबाइल और कंप्यूटर से खेलते हैं, इसलिए वे वास्तविक विश्व और समाज का हिस्सा नहीं बन पा रहे। बाज़ारवाद का एक ही उसूल है अधिकतम प्रॉफिट कमाना और उसका असर आम इंसान के बजट पर पड़ता ही पड़ता है लेकिन इसके बावजूद भी इंसान अपने स्वभाव से सबसे अधिक आडम्बरों में फंसना चाहता है।
आज से कुछ साल पहले हमारे पुरखे साबुन, टूथ पेस्ट, आदि के बारे में जानते ही नहीं थे पर बाज़ार वाद ने कीटाणुओं का डर दिखा कर साबुन, शैम्पू, दांत मंजन आदि सब बेच दिए। आज हर इंसान , हर हाल में इनको खरीदता ही है।
आजकल आभासी समाज ने जगह ले ली है। कंप्यूटर गेम की इस दुनियां ने उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह से बदल दिया है। किशोरों की आबादी कंप्यूटर गेम, गैजेट, सोशल मीडिया आदि में उलझ कर रह गई है। यह सब बाजारवाद और उपभोक्तावाद का परिवार और समाज पर बढ़ते प्रभाव का ही नतीजा है।
रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली उपयोगी सामानों की संख्या की कमी नहीं है, हर सामान की आवश्यकता समय-समय पर होती है और डिब्बे पर लगे हुए सुंदर-सुंदर ब्रांड देखकर लोगों के मन में उसे लेने की इच्छा होती है, भले ही वह सामान कैसा हो इसकी जानकारी भी उन्हें नहीं होती है। चाय पत्ती, नहाने का साबुन, खाने का तेल, सौंदर्य प्रसाधन, शैंपू पाउच या बोतल डिटर्जेंट पाउडर के पाउच अथवा पैकेट या टिकिया, मिर्च मसाले नमकीन ना जाने कितने प्रकार के समान मशहूर ब्रांड का नाम देख कर लाए हो, पर वास्तव में वह मूल कंपनी के ना होकर किसी जालसाज कंपनी के भी हो सकते हैं। फिर भी मनुष्य उस समान को लेने के लिए आतुर रहता है।
विज्ञापन में दिये आकर्षण के वशीभूत होकर उपभोक्ता जब नकली खाद्य सामग्री का सेवन करता है, तो वह रक्तचाप, कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह जैसी घातक बीमारियों को आमंत्रण देता है।
व्यर्थ के खर्चों में आम इंसान इतना लिप्त हो गया है उसे अपना अच्छा बुरा समझ नहीं आता। आनलाईन सेल में हड्डियों का शर्तिया ईलाज, कद बढ़ाना, सेक्स पाॅवर बढ़ाना, तंत्र-मंत्र की अंगूठी से वषीकरण, समृद्धि पाना, अंगूठी, लाॅकेट, रत्नमणि से राशी के प्रतिकूल असर को दूर करनें के विज्ञापन आम है। जिसमें इंसान उलझ कर रह गया है।
बाजारवाद के इस दौर में नकली और असली के बीच फर्क करना काफी मुश्किल हो जाता है. लुभावने विज्ञापन के फेर में पड़कर ग्राहक अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होने के कारण ठगी का शिकार हो जाते हैं.
बाजारवाद के चलते पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है, वह सोचनीय है। जिसके चलते आज हमारा समाज दिशाहीन हो रहा है, देश के कुछ युवाओं का तो अपने ही गौरवशाली अतीत के प्रति कोई सम्मान नहीं है यह स्थिति बेहद सोचनीय व चिंताजनक है।
मार्केट में कई प्रकार के ब्यूटी प्रोडक्ट भी आते हैं जब यह सारे सामान ब्यूटी पार्लर जाते हैं और कुछ सामान नकली होने के कारण उसका साइड इफेक्ट औरतों की स्किन पर हो जाता है। फिर भी चकाचौंध में लिप्त हो कर वो प्रोडक्ट महिलाएँ खरीदती रहती है।
ऑनलाइन, फेसबुक पर मिलने वाले कपड़े, ब्यूटी प्रोडक्ट, काफी महंगे होने के बावजूद भी आम आदमी लेने को तैयार हो जाता है। महंगे से महंगे मोबाइल अपनी जरूरत के अनुसार आम आदमी लेने को तैयार है। सस्ते मोबाइल मे भी बाते हो सकती है पर मल्टीमीडिया मोबाइल ज्यादा आकर्षक होने के कारण अपनी आमदनी से खर्च देना मानव स्वभाव बन गया है। चिट्ठी पत्री के जमाने गए। आधुनिकता की आड़ में मानव एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने की होड़ में है। सस्ते और टिकाऊ कपड़े छोटी दुकानों में भी मिलते हैं मगर खुद को ब्रांडेड बनाने के चक्कर में आम इंसान ऑनलाइन सब कुछ खरीदना अपनी शान समझता है।
सुंदरी के साथ एक हसीन शाम, क्रिकेट खिलाड़ी के साथ खेलने का लुत्फ, देह-विमर्श; ऐसा कौन सा सपना है जो आधुनिक बाजार के पास नहीं हैं और जिसे आम आदमी को मुहैया कराने के लिए उसके पास योजनाएं व विकल्प नहीं है। आज चर्चा के लिए शेविंग ब्लेड से ले कर यौन शक्ति वर्धक दवाओं तक हर चीज का इतना सहज सुलभ बाजार उपलब्ध हो गया है कि बच्चों की सहज बालोचित क्रीड़ाओं और अदाओं को निर्देशकीय पटुता से आकर्षक बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है । इस चक्कर में शैषव गुम होता जा रहा है। नारी शरीर की बारीकी से पड़ताल की जा रही है। व्यवस्थित तरीके से ''ढांकने की असफल कोशिश'' आज आदमी के दिमाग में अलभ्य सपने पैदा कर रही है, जो अनेक वैयक्तिक व सामाजिक विकृतियों के रूप में सामने आ रहे हैं। स्थिति यहाँ तक हो गई है कि व्यक्ति स्वयं भी जिंन्सो में तब्दील हो कर बाजार में पहुंच चुका है। यह बाजारवाद का सबसे दुःखद पहलू है जो भविष्य के लिए नई चिन्ताएं गढ़ती है ।
बाजार हमेशा था और हमेशा रहेगा किन्तु मानव निर्मित हो कर भी यदि वह मानव पर हावी हो सकता है। इस विषय पर बुद्धिजीवियों के गहन चिंतन की आवश्यकता है।
विज्ञापनों के माध्यम से एक बड़े वर्ग को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हुए बाजार में मांग उत्पन्न करना अब सहज-सरल हो गया है। प्रचलित परंपराएं भी वर्तमान परिवेश में नए स्वरूप में विस्तार पा रही है। पारिवारिक तौर पर किए जाने वाले काज-क्रियावर भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप से किए जाने लगे हैं। मान-सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने या बढ़ाने के लिए की जा रही फिजूलखर्ची आर्थिक समृद्धि की सूचक सिद्ध हो रही है। देखते-देखते बाजार का स्वरूप व्यापक होता जा रहा है।
उपभोक्ता संस्कृति के चलते नागरिकों की आवश्यकताओं में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि होती जा रही है। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उत्पाद की लोकप्रियता स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। आज उत्पादक के लिए बाजार की अनुपलब्धता का कोई प्रश्न शेष रहा ही नहीं है। बढ़-चढ़कर की जा रही विज्ञापित सामग्री के खरीदारों की कहीं कोई कमी नहीं है। मांग उत्पन्न करना अब कहीं अधिक आसान हो गया है।
विज्ञापित वस्तुओं के बारे में चाहे जितना अतिशयोक्तिपूर्ण बखान किया जाए, नागरिकों के एक बड़े वर्ग द्वारा इस पर आपत्ति भी नहीं ली जाती। हर उत्पाद को सहर्ष स्वीकार करने की मनोवृति को विकसित करने में विज्ञापन का बहुत बड़ा योगदान है। धनाढ्य वर्ग अपनी क्रय शक्ति के बलबूते पर उन चीजों की ओर सहज ही आकर्षित हो जाता है, जिसे विज्ञापन में दर्शाया जाता है। यहीं से शुरू होता है फिजूलखर्ची का कभी न रुकने वाला सिलसिला। यह सिलसिला निरंतर विस्तार पाता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं के लिए अनिवार्य अथवा आरामदायक आवश्यकताओं में जोड़ी जा सकती है। आज बाजार में भौतिक संसाधनों की भरमार है, अनिवार्य आवश्यकताओं को छोड़कर आरामदायक और विलासितापूर्ण आवश्यकताओं को विज्ञापन के माध्यम से नया बाजार दिया जा रहा है।
मांग और पूर्ति का अब तक प्रचलित सिद्धांत यातायात संसाधनों तथा प्रचार माध्यमों के चलते मनोवांछित रूप से परिवर्तित भी किया जाने लगा है। वर्तमान परिवेश में अर्थोपार्जन करने के लिए उचित या अनुचित माध्यम पर विचार नहीं किया जाता। येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्ति ही जन सामान्य की सामान्य समझ बनती जा रही है। इसके चलते अनैतिकता को बढ़ावा मिल रहा है और भ्रष्टाचार को भी गति मिल रही है।
शादी में होने वाली फिजूलखर्ची को दहेज से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। दहेज में दबाव और मांग का तत्व होता है और फिजूलखर्ची में सब कुछ मनमर्जी से किया जाता है। शादी में फिजूलखर्ची भी उतनी ही पुरानी प्रथा है जो भौतिकवाद बढ़ने और बाजारवाद के आगमन से साथ न सिर्फ सर्वव्यापी बल्कि फूहड़ भी हो गई है।
सिर्फ निमंत्रण-पत्र बांटने के लिए हज़ारो रुपए खर्च किए जाते हैं। राजनीति, व्यवसाय, अफसरशाही और विभिन्न संपन्न तबकों में फिजूलखर्ची चलन बन गया है। आसपास के इलाकों में कुछ नवधनाढ्य शादियों में दूल्हे को हेलिकॉप्टर से उतारते हैं। विवाह सिर्फ संपत्ति के प्रदर्शन का कार्यक्रम ही नहीं बन गया है बल्कि सत्ता के प्रदर्शन के साथ बाजारवाद का उत्सव भी हो गया है।
अगर महंगी शादियां होंगी तो सामान बिकेगा और लोगों को रोजगार व कारोबार मिलेगा, उदारीकरण का यह सिद्धांत चारों तरफ सिर चढ़कर बोल रहा है। ऐसी बहुत सारी शादियां हुई हैं, जिनमें मीडिया और सरकार न सिर्फ बढ़-चढ़कर सहयोग देते हैं बल्कि उसमें शामिल होते हैं, क्योंकि वैसी शादियों में शामिल होना चुनाव में टिकट पाने, अच्छा ठेका पाने और अच्छी पोस्टिंग पाने की गारंटी हो जाती है।
बाजारबाद की जो प्रवृत्ति है वह मानवीय मूल्यों पर बहुत चोट कर रही है। उपभोक्ता को सोच समझकर निर्णय लेना होगा। भेड़ की झुंड की तरह उन्हें आगे नहीं बढ़ना है। उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करना होगा और अपने उपयोग में आने वाली सामग्री का चयन सोच समझ कर करना होगा। बाजारों को ग्राहकों पर हावी होने से रोकना होगा तब कहीं मानवीय मूल्यों पर आधारित बाजार व्यवस्था कायम होगी। नगरीय विकास एवं शहरीकरण ने लोगों के मनोबल को काफी ऊंचा किया है जहां पर मॉल ई-कॉमर्स जैसी संस्थाएं काम कर रही है वहां पर बाजार ग्राहकों पर आवश्यकता से ज्यादा हावी होती जा रही है।
एक समय वह था जहां लोग बाजारों में एकत्रित होकर मिलते थे। आने वाले भविष्य के लिए चिंतन करते थे। अपनी आवश्यकताओं की सामग्री को खरीदते थे। दुकानदार अपने सामानों को नैतिक मूल्यों के आधार बिक्री किया करते थे। ग्राहक उनके भगवान स्वरूप होते थे और मुनाफा उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लायक थी। लेकिन आज दुकानदार ग्राहक पर हावी है बाजारवाद के जाल में आम जनता पूरी तरह से फंसा हुआ है, जिसका जिम्मेदार स्वयं आम नागरिक है।
मकर सक्रांति का त्योहार अपने घरेलू खानपान और किसी बहती पवित्र धारा में स्नान के लिए जाना जाता है। लेकिन अब ऐसा शायद नहीं है। मकर सक्रांति अब पतंगबाजी के लिए भी जाना जाता है और यही कारण है कि इस दिन लोग पतंगबाजी में श्रेष्ठता की होड़ में अपने या अन्य के जीवन के लिए घातक सिद्ध होते हैं। मकर सक्रांति के दिन एक युवक का मांझे वाले धागे से गला तक कट गया। इसके अलावा, हम ऐसी भी घटनाएं सुनते होंगे कि पतंग काटने के चक्कर में कोई छत से गिर गया या किसी में मुठभेड़ हो गई। मकर सक्रांति में पतंगबाजी की घुसपैठ बाजार की देन है। यह एक कड़वा सत्य है कि बाजार ने हमारे त्योहारों की मूल प्रकृति में व्यापक बदलाव ला दिया। बाजारवाद केवल इसी त्योहार पर हावी नहीं है, बल्कि इसने अन्य त्योहारों पर भी अपनी पैठ जमाई है।
होली में हम प्राचीन काल में पुष्पों से रंग बनाया करते थे या प्राकृतिक स्रोतों से, जो किसी भी रूप से न तो प्रकृति के लिए और न ही मानव समाज के लिए हानिकारक थे। वहीं लठमार होली समाज में बंधुत्व स्थापित करती थी, लेकिन बाजारवाद के चलते यह त्योहार भी काफी प्रभावित हुआ है, क्योंकि आज बेहद खतरनाक रासायनिक तत्त्वों से मिलावट भरे रंगों का गोरखधंधा चलता है। इसी होली के दिन समाज का बड़ा तबका नशे में चूर रहता है जो किसी जीवन को नकारात्मक रूप से ध्वस्त करता है। वहीं दीपावली जैसे त्योहार पर विस्फोटक पदार्थों का बाजार भी चमक उठता है जो वायु को तो प्रदूषित करता ही है, अपनी जद में किसी के जीवन को शून्य भी कर दे सकता है।
वर्तमान समय में उपभोक्तावादी संस्कृति का दुर्निवार आकर्षण सबके सिर चढ़कर बोल रहा है। इसने आदमी को अनगिनत इच्छाओं से भर दिया है। वह अपने घर को अटरम-शटरम चीजों का कबाड़खाना बना रहा है। इस बाजारवाद के कारण लोग ऋण लेकर वस्तुएं खरीद रहे है। उपभोक्तावाद का वह नशा न मरने देता है और न जीने। तृष्णाएँ बढ रही है, सरस्वती पलायन कर रही है। गाँव के लोग भी इससे अछूते नहीं है। सड़क के द्वारा मानो बाजार ही गाँव में घुस आया हैं। ग्रामीण भी इन उपभोक्तावादी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए शहरी साहुकारों के ऋण-जाल में फँसते जा रहे हैं। खेत गिरवी पड़े है। मानव-विनाश के विविध अस्त्रों का संचय हों रहा है, खाने-पीने की चीजें, नदियाँ सभी दूषित है। प्रदूषण बढ़ रहा है।
बाजारवाद मे सिमट कर मानव नशे की लत मे को अभिन्न अंग बना रहे हैं। शहर की रगों में नशा बसता जा रहा है। दिनों दिन नशे की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं। कभी चोरी छिपे बिकने वाले नशे का सामान, आज धड़ल्ले से बिक रहा है। स्मैक के धुएं से जवानी सुलग रही और नशीले इंजेक्शन नशों में उतारे जा रहे हैं। शहर की गली-गली में नशे के दीवाने झूमते दिख रहे हैं। सुनसान स्थानों पर स्मैक और नशीले इंजेक्शन लगाते देखे जा सकते हैं। नशे के आदी युवाओं की बर्बादी का मंजर खुलेआम शहर में चलता जा रहा है। वही शहर में सबसे ज्यादा युवाओं के अंदर स्मैक का नंशा फैल रहा है। जो युवाओं के परिवारों को बर्बादी की ओर ले जा रहा है। कई स्थानों पर हो रही स्मैक की बिक्री युवाओं को बर्बाद कर रही है। महंगा नशा नशेड़ी के साथ ही पूरे परिवार को तबाह कर रहा है। नशे की चपेट में आए युवा पचास रुपए से लेकर सौ रुपए तक स्मैक की एक खुराक पीते पीते सब कुछ लुटने के बाद दस रुपए के इंजेक्शन और नशीली गोलियों से नशे की प्यास शांत कर रहे हैं। ये सभी कारक मानव जीवन को काल के गर्त में धकेल रहा है लेकिन मानव, स्वभाव के वशीभूत होकर ऐसी चीजों को खरीदकर अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं अपना विवेक खो रहे हैं। एक दूसरे का सम्मान तो दूर लड़ाई, झगड़ा, बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देने लगे हैं।
मन में अशांति एवं आक्रोश बढ़ रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम धीरे-धीरे उपभोगों के दास बनते जा रहे हैं। सारी मर्यादाएँ और नैतिकताएँ समाप्त होती जा रही हैं तथा मनुष्य स्वार्थ-केन्द्रित होता जा रहा है। विकास का लक्ष्य हमसे दूर होता जा रहा है। हम लक्ष्यहीन हो रहें हैं।
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में बाजारवाद और इसकी ताकतवर व्यवस्था के प्रभाव से समाज का कोई भी वर्ग अछूता नहीं रहा है। हालात यह हो गये हैं कि सनातन धर्म की संस्कृति व त्यौहारों की बेहद गौरवशाली परम्पराएं भी बाजारवाद के आसान शिकार बन गये हैं। देश में स्थिति ऐसी हो गयी है कि अब तो हम लोग किसी दूसरी संस्कृति व विचारों को भी बिना सोचे समझे बाजार के जादू के चलते अपना रहे हैं। बाजारवाद ने सभी सीमाओं को तोडऩे का काम किया हैं।
आज ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो कभी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करती थीं, लेकिन अब बाजार वाद के कारण गायब होती जा रही है। इसका मुख्य कारण पाश्चात्य सभ्यता को अपनाना है।
पहले पुरुष धोती कुर्ता या पायजामा कुर्ता पहनते थे। आजकल ये बहुत ही काम देखने को मिलता है। कुछ लोग तो ऐसी पोशाक सिर्फ त्योहारों में पहनते हैं। पहले लड़कियां साड़ी या सलवार कमीज़ पहनती थी, आजकल बहुत कम ही लड़कियां ये पोशाक पहनती हैं। ज्यादातर जीन्स और टॉप का चलन है। लड़के और लड़कियों में फर्क ही नही पता चलता आजकल।
आजकल संयुक्त परिवार विरले ही देखने को मिलते है। अब तो एकल परिवार का चलन है। आजकल पूरा परिवार एक साथ तो सिर्फ त्योहारों में इकट्ठा होता है। घर के पौष्टिक भारतीय व्यंजनों की जगह बर्गर और पिज़्ज़ा जैसे जंक फूड्स ले रहे हैं। पहले खाना मिट्टी, तांबे, काँसा लोहे इत्यादि के बर्तनों में बनता था, जो स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद था। आजकल खाना एल्युमीनियम, नॉन स्टिक और प्लास्टिक के बर्तनों में बनता और रखा जाता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शादियों में घर के और पड़ोस की औरतें मिलकर लोकगीत गाती थीं, आजकल इसकी जगह स्पीकरों में बजने वाले फिल्मी गानों ने ले ली है।
शादियों में घर के लोग ही भोजन परोसते थे, आजकल इस काम के लिए बैरे नियुक्त किये जाते हैं। लोग पहले एक साथ फर्श पर बैठ कर खाना खाते थे। आजकल डाइनिंग टेबल का ज़माना है, पर उसपे भी मुश्किल से एक साथ बैठ कर सब खाते हैं। कोई अपने बिस्तर पर मोबाइल चलाते हुए खाता है, तो कोई सोफे पर टीवी देखते हुए। पहले लोगों के घरों में खुद की गाय और भैसें होती थीं। दूध, दही और घी की भरमार थी। आजकल सबकुछ खरीदना पड़ता है; दूध, दही, घी इत्यादि, सब पैकेटों में बिकता है। जो कि बाजारवाद का बोलबाला है।
जीवन में 'सुख' का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। परन्तु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने को ही 'सुख' कहने लगे है। विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भी 'सुख' कहलाते हैं। हम उत्पादों का उपभोग करते-करते न केवल उनके गुलाम होते जा रहे हैं बल्कि अपने जीवन का लक्ष्य को भी उपभोग करना मान बैठे हैं। सही बोला जाय तो हम उत्पादों का उपभोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उत्पाद हमारे जीवन का भोग कर रहे हैं।
इसलिए हमारे समाज को अब नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है कि संस्कृति का विकास करना बाजार के बस की बात नहीं, बल्कि यह एक सभ्य समाज के सहयोग द्वारा ही विकसित हो सकती है। अगर हम अपने त्योहारों को उसके मूल उद्देश्य के साथ मनाएं तो हम इससे केवल संस्कृतिक विकास ही नहीं, आर्थिक विकास भी कर सकते हैं।
इसके लिए हमें फिजूलखर्ची से बचना चाहिए, विदेश से आयात की हुई वस्तु के बजाय देश में निर्मित वस्तुओं को तरजीह देना चाहिए, ताकि घरेलू उद्योगों का विकास हो सके। यों भी हमारे त्योहारों का मूल स्वभाव ऐसा है कि इससे समाज में समन्वय, सहयोग, बंधुता सामंजस्य आदि की भावना कायम होती है जो सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है।
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